मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में लगभग छह दशक से हूं। छात्र जीवन से ही पत्रकारिता से जुड़ गया था। वर्तमान पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रकारिता दोनों से समान रूप से जुड़ा हुआ हूं। एक समय देश में ऐसा भी था, जब प्रमुख पत्र पत्रिकाओं के संपादक भूर्धन्य साहित्यकार ही हुआ करते थे। तब प्रायः हर समाचार पत्र सप्ताह में एक दिन अर्थात रविवार को साहित्य को महत्व देने के लिए रविवारीय परिशिष्ट छापा करते थे जिनमें कहानी, लेख, कविताएं प्रकाशित होती थीं। इसका अभिप्राय यह कि देश में एक दौर ऐसा भी थी, जब पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रकरिता दोनों हाथ से हाथ मिलाते हुए चल रही थीं, क्योंकि आज की तरह तब पत्रकारिता से साहित्य को बहिष्कृत नहीं किया गया। अब तो पत्रकारिता की गाड़ी खींचने वाले अखबारों और पत्रिकाओं के मालिक यह मानकर अखबार और पत्रिका का प्रकाशन कर रहे हैं कि विज्ञापनों को प्राथमिकता दी जाए। जगह बचे तो समाचार, लेख को स्थान दिया जाए। इसी सोच के कारण सामान्य पत्रकारिता की परिधि से साहित्यिक पत्रकारिता को प्रायः अलग कर दिया गया और पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रकारिता की दो धाराएं अलग-अलग बहने लगी हैं। हम चाहे आदर्शों की कितनी ही बातें क्यों न करें, लेकिन व्यवहारिक सच तो यह है कि ग्लैमर से लदी-फदी पत्रकारिता की दुनिया के लोग साहित्यिक पत्रकारिता को दोयम दर्जे की मानते हैं। कभी-कभी तो साहित्यिक पत्रकारिता के अस्तित्व को भी नकारने के प्रयास होते दिख जाते हैं यही कारण है कि दैनिक अखबार के संपादक को जो महत्व मिलता है वह साहित्यिक पत्रिका के संपादक को नहीं मिलता। केंद्र और राज्य सरकारें भी साहित्यिक पत्रकारों को सामान्य पत्रकारों के समान महत्व नहीं देतीं, जबकि समाज में जनमानस को जगाने और सकारात्मक बातों मुद्दों के प्रचार-प्रसार तथा लोगों के मानस को तैयार करने में साहित्यिक पत्रिकाओं का सदैव से प्रभावशाली योगदान रहा है। इस संदर्भ में 'सरस्वती', 'कल्पना' और 'वीणा' आदि पत्रिकाओं के साथ-साथ साप्ताहिक 'धर्मयुग' और साप्ताहिक 'हिंदुस्तान' का जिक्र किया जा सकता है। सार रूप में कहा जा सकता है आजादी मिलने के 70 साल के लंबे कालखंड में भी साहित्यिक पत्रकारिता उपेक्षा की शिकार रही हैं। उसकी पत्रकारिता को लेकर होने वाली बहसों से भी दूर रखा गया है।
इस उपेक्षा के दौर के चलते प्रेरणा प्रकाशन, भोपाल ने 'साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य' नामक एक दस्तावेजी पुस्तक का प्रकाशन कर ठहरे जल में पत्थर पूरी ताकत से फेंका है। निश्चित ही इस उपक्रम की प्रतिक्रिया स्वरूप साहित्यिक पत्रकारिता को लेकर सोच-विचार, बहस-विमर्श की लहरें तो अवश्य उठेगी। 352 पृष्ठों की इस पुस्तक का संपादन साहित्यकार एवं त्रैमासिक साहित्यिक पत्रकारिता 'प्रेरणा' भोपाल के संपादक श्री अरुण तिवारी ने किया है। वे पिछले 21 वर्षों से देश की इस गंभीर पत्रिका का संपादन करते हुए साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति पर गहन चिंतन मनन कर रहे हैं। वैसे तो कभी-कभार साहित्यिक पत्रकारिता पर लेख छपते रहते हैं और हिंदी तथा साहित्य से जुड़ी संस्थाएं उस पर विमर्श भी आयोजित करती रहती हैं, लेकिन कुछ दिन चर्चा के पश्चात फिर ठंडापन आ जाता है और साहित्यिक पत्रकारिता के साथ 'कोल्ड ट्रीटमेंट' बदस्तूर चलता रहता है। पिछले दिनों मप्र साहित्य अकादमी ने साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों की एक गोष्ठी भोपाल में रखी थी, लेकिन वह भी एक सरकारी समारोह ही बनकर रह गई। संगोष्ठी में क्या हुआ, कौन से मुद्दे उभर कर आए, यह पता नहीं लगा। इस बीच 'साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य' नामक यह दस्तावेज सामने आया उसके अनुभवी संपादक श्री तिवारी ने काफी मेहनत की है और 38 आलेख जुटाकर उनको पुस्तकाकार प्रकाशित करके देश की पत्रकारिता पर खुलकर बहस के लिए आधार भूमि तैयार कर दी। यूं कहिए कि भारत की साहित्यिक पत्रकारिता का एजेंडा उन्होंने देश के सामने प्रस्तुत कर दिया है जो तथाकथित पत्रकार औरबुद्धिजीवी साहित्यिक पत्रकारिता को समुचित भाव देने की मन: स्थिति में नहीं थे, उन्हें भी इस दस्तावेज के सम्यक अध्ययन के बाद अपने एकपक्षीय दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने के लिए आज नहीं तो कल तैयार होना ही पड़ेगा। इस दस्तावेज के बाद साहित्यिक पत्रकारिता के वजूद को नकारने के पूर्व दस बार सोचना पड़ेगा जो पत्रकारिता देशवासियों को सही ढंग का चिंतन दे रही है और देशवासियों में सविचारों का प्रचार-प्रसार कर रही है, उसकी अब अधिक दिन अनदेखी नहीं हो सकेगी। आखिर चोरी, डकैती, अनाचार, भ्रष्टाचार, घोटालों और धनपतियों के कारनामों के समाचार और लेखादि प्रकाशित करने वाली सामान्य पत्रकारिता कब तक साहित्यिक पत्रकारिता के सम्मान की राह को रोक कर खड़ी रहेगी?
'साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य' दस्तावेज में विद्वान और अनुभवी लेखकों ने साहित्यिक पत्रकारिता के संबंध में जो तर्क दिये हैं और साहित्यिक पत्रकारिता की समकालीन उपादेयता को जिस दृढ़ता के साथ प्रस्थापित किया है-वह इस दस्तावेज की मुख्य बात है। अब तक साहित्यिक पत्रकारिता की परिभाषा, उसकी व्याप्ति और प्रभाव क्षेत्र के बारे में जिस सुविचारित आधार सामग्री की कमी महसूस की जा रही थी, उसकी पूर्ति इस दस्तावेज में शामिल 90 प्र.श. आलेखों ने कर दी है। दस्तावेज में कुछेक आलेख सीधे-सीधे साहित्यिक पत्रकारिता की कोई खास पैरवी करते दिखाई नहीं दे रहे हैं। वे सामान्य पत्रकारिता मीडिया की खबर लेते अवश्य दिखाई दे रहे हैं श्री प्रमोद भार्गव, श्री शराफतअली खान, श्री दिनेश पाठक, श्री ओमप्रकाश पांडेय और श्री केवल गोस्वामी के आलेख कमोवश इसी श्रेणी में आते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि प्रेरणा प्रकाशन ने इस दस्तावेज के माध्यम से साहित्यिक पत्रकारिता की बड़ी मदद की है। अब साहित्यिक पत्रकारिता पर उपेक्षा का जो कोहरा बरपा था, निश्चित ही वह छंटेगा। दस्तावेज के आलेखों ने आज की साहित्यिक पत्रकारिता के बारे में ही नहीं लिखा है, उसके गरिमापूर्ण अतीत की चर्चा भी की है। अधिकतर आलेखों का स्वर यही है कि स्थितियां बदलेंगी और साहित्यिक पत्रकारिता के अच्छे दिन भी आएंगे। इस बीच इंटरनेट जीवी और सरकारी विज्ञापनों से प्राणवायु ग्रहण करने वाली पत्रिकाओं ने साहित्यिक पत्रकिरता के मार्ग में जो कांटे बिछाने का सिलसिला पिछले दो-तीन दशक में प्रारंभ किया है, उस पर भी गंभीरता से सोच-विचार करना होगा।
'साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य दस्तावेजी पस्तक ने साहित्यिक पत्रकारिता को भी बहस और सम्मान से केंद्र में लाने की जो अच्छी शुरूआत की है, वह अभिनंदनीय और प्रोत्साहनीय है।