साहित्य और पत्रकारिता एक दूसरे के पूरक हैं। मानव जीवन और प्रकृति से संबंधित स्थितियां, घटनाएं साहित्य का प्रार्दुभाव करती हैं जिनसे कहानी, कविता का सृजन होता है, वहीं पत्रकारिता द्वारा वे समाचार का जनक बनती हैं। जहां साहित्य में संवेदना होती है, एक अदृश्य तारतम्य होता है, वहीं समाचार में सपटबयानी होती है, वस्तुस्थिति को जस का तस प्रस्तुत करने की बाध्यता होती है परन्तु यदि संपादक का नजरिया साहित्यिक है तो वह उस समाचार की भाषा और उसके शीर्षक से परिलक्षित होता है, तथा पत्र-पत्रिकाओं की सामग्री में भी दिखाई देता है। पहले एक कहावत प्रचलित थी कि अच्छा साहित्यकार, अच्छा पत्रकार हो सकता है पर अच्छा पत्रकार, अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकताउस कहावत की प्रासंगकिता आज के परिदृश्य में और बढ़ गई है क्योंकि आज का संपादक, सामग्री इस दृष्टि से देना चाहता है कि पत्र-पत्रिका की प्रसार संख्या बढ़े, लोगों को पढ़ने में रोचक, चटपटा लगे और यही कारण है कि पत्रपत्रिकाओं में रंग बिरंगे फोटो, फैशन, फिल्म आदि से संबंधित सामग्री बढ़ गई है, दैनिक समाचार पत्रों में तो जहां ये सप्ताह में एक बार आते थे प्रायः अब प्रतिदिन होते हैं।
इधर की पत्रकारिता में नकारात्मकता के चलन में भी वृद्धि हुई है। समाचार, समाचारों की भाषा, प्रस्तुतीकरण,आदि नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किये जा रहेहैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस प्रवृत्ति को अत्याधिक बढ़ावा दे रहा है। समाचारों में सकारात्मक समाचार, सफलता के समाचार, ग्रामीण एवं मूलभूत समस्याएं, अपनी माटी से जुड़े विकास से संबंधित समाचारों में कमी आती जा रही है। सनसनीखेज समाचार और भी सनसनीखेज बनाकर तथा फूहड़ हास्य कार्यक्रम प्रस्तुत किये जा रहे हैं। धीरे धीरे रुचियों में परिवर्तन किया जा रहा है, जीवनशैली को बदलने का प्रयास किया जा रहा है, आवश्यकताओं की प्राथमिकता का क्रम बदलने के रास्ते तलाशे जा रहे हैं। ये सब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अपने उत्पाद खपाने की सुनियोजित रणनीति हो सकती है जिसमें मीडिया को बेतहाशा विज्ञापन और आर्थिक मदद देकर अपने अनुसार उपयोग किया जा रहा है या विदेशी शक्तियों द्वारा सोच बदलने के प्रयास भी हो सकते हैं।
बदलते परिदृश्य में शब्दों के अर्थ और परिभाषा बदल रही है। शब्दकोष में दिये गये उनके शाब्दिक मायने संशय उत्पन्न करने लगे हैं क्योंकि जिस ढंग से उनका प्रयोग हो रहा है, वे प्रभावित करने की बजाय नये अर्थ दे रहे हैं और इन सबसे निश्चित रूप से भाषा प्रभावित हो रही है। पूर्व में इन शब्दों के प्रयोग से जो प्रभाव उत्पन्न होता था, उसकी जगह विश्वसनीयता का संकट पैदा हो रहा है जो पत्रकारिता की पहली और आवश्यक शर्त है। अब तो पत्रकारिता शब्द के आगे ही प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं। एक ऐसा माध्यम जो जनता की दशा को बयान करता हो, उसे दिशा देता हो जब वो ही अपनी विश्वसनीयता खोने लगे तो उससे क्या अपेक्षा की जा सकती है।
पत्रकारिता का इतिहास अपने देश में लगभग दो सौ वर्ष पुराना है लेकिन उसकी असली उपादेयता उसने स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन में सिद्ध की और महत्पर्ण योगदान दिया। उस समय पत्रकारिता एक मिशन के रूप में उभरी, जनन के रूप में चली और लोगों के सिर पर चढ़कर बोली और निश्चित ही इसका श्रेय उस समय के समाचार पत्रों के मालिकों और सम्पादकों को जाता है जिन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों में जागति की भावना पैदा की, गलामी से मक्ति पाने का जोश पैदा किया, विभिन्न प्रकार के खतरे उठाकर एक पवित्र लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। सोद्देश्य पत्रकारिता की यह अनूठी और अद्भुत मिसाल है। हालांकि यह भी कहा जाता है कि उस समय के व्यवसायी व उद्योगपति ब्रिटिश हुकुमत को हटाना चाहते थे, उनकी सोच यह थी कि देश स्वतंत्र होने पर अपनी ही हुकुमत आने पर उन्हें अपने व्यवसाय व उद्योग धंधों को अपने ढंग से आगे बढाने के अवसर मिलेंगे। पत्रकारिता के बारे भी यही सोच हो सकती है। इन्हीं सब कारणों से हो सकता है उनका भरपूर सहयोग पत्रकारिता को मिला। बहरहाल वास्तविकता जो भी हो परन्तु वर्तमान में पत्रकारिता चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, पूरी तरह, अच्छा खासा बड़ा व्यवसाय बन चुकी है और इस व्यवसाय को संचालित करने वालों का नामकरण बदलते समय के साथ मीडिया हाउस हो चुका है।
कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है तो पत्रकारिता ने भी समाज की कुरीतियां मिटाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है, समाज को जागरूक बनाने में, दिशा देने में अपनी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। शायद इसका एक कारण यह भी था कि उन दिनों साहित्यकार ही पत्रकार हुआ करते थे और वे पत्रकारिता को एक अनुष्ठान मानते थे, पत्रकारिता को उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और उसकी सफलता सबके सामने है पर जिस तरह समय के साथ साथ एक अच्छी चीज में बुराईयां आ जाती हैं,वो सब इसके साथ भी होता गया। वो हथियार जिसने गुलामी से मुक्ति पाने में महत्वपूर्ण भमिका निभाई थी. वही हथियार धीरे धीरे अपना प्रभाव बनाने में, दबाव निर्मित करने में, स्वार्थसिद्धि में और पैसा कमाने में उपयोग किये जाने लगे और उसका व्यापक रूप अब हमारे सामने है। पत्रकारिता के माध्यम चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, बड़े-बड़े व्यवसायिक घरानों जिन्हें अब कारपोरेट हाउस कहा जाने लगा है, के एक व्यवसाय के रूप में ही उभर कर नहीं आ रहे हैं बल्कि वह सब कर रहे हैं जिससे उनके हितों को लाभ पहुंचता हो और साहित्यकार जो कभी इनके महत्वपूर्ण अंग हुआ करते थे, परिदृश्य से विलुप्त होते जा रहे हैं और साहित्य तो इनके लिए अछूत सा हो गया है। कभी कभी लगता हैकि आज की पत्रकारिता साहित्य से इतनी भयाक्रांत क्यों है? क्या आज भी साहित्य हथियार बन सकता है जिसने स्वतंत्रता प्राप्ति के महासंग्राम में पत्रकारिता के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी एवं सामाजिक कुरीतियों को जड़ से उखाड़ फेंकने में तथा सामाजिक उत्थान में अग्रणी रहा था। साहित्य तो परमाणु बम से भी अधिक प्रभावशाली हथियार हो सकता है क्योंकि परमाणु बम से एक निर्धारित क्षेत्र ही प्रभावित होता है परन्तु साहित्य से इन बम को बनाने वाले मस्तिष्क के विचार प्रभावित होते हैं जो सम्प्रेषित होते रहते हैं और वे किसी भी शोध के लिए खोज के लिए निर्माण में अपनी महती भमिका का निर्वहन करते हैं, यदि इनको सुनियोजित ढंग से प्रचारित, प्रसारित किया जाय और लोगों के मस्तिष्क में ठीक ढंग से उतारा जाय, वैचारिक क्रांति का आधार बनते हैं। विश्व में इस तरह के उदाहरण हैं। नक्सलवादी अपने संगठन को सुदृढ़ करने और नये लोगों को उसमें जोड़ने के लिए इससे संबंधित साहित्य का सफल उपयोग करते हैं जिसे नक्सली साहित्य की संज्ञा दी जाती है। इसी तरह आतंकवादी संगठन भी अपनी गतिविधियों को बढ़ाने, संगठन फैलाव के लिए तथा लोगों को गुमराह करने के लिए संगठन से संबंधित साहित्य का सहारा ले रहे हैं जिसे आतंकी साहित्य कहा जाता है। साहित्य ही नहीं साहित्य शब्द भी विभिन्न रूपों में मानवजीवन का अंग है जैसे किसी भी उत्पाद, दवा आदि के साथ के विवरणपत्रक को भी सामान्यतया लिटरेचर कहा जाता है जिससे उस वस्तुविशेष की विशेषता परखी जाती है। साहित्य जब इस तरह रचा बसा है तो उसे कैसे अलग किया जा सकता है।
आज स्थिति यह है कि पत्रकारिता विश्वविद्यालयों में संचालित होने वाले पाठ्यक्रम में साहित्य, भाषा, सामाजिक विकास और दायित्व, ग्रामीण समस्याएं और विकास, पर्यावरण, भारतीय संस्कृति, नैतिक मूल्य संबंधी शिक्षा के विषय सम्मिलित नहीं हैं। वे विषय जो आदमी को आदमी से जोड़ सकें, समाज से जड़ने में सहायक हों, सामाजिक प्रतिबद्धता की बात करते हों,नहीं पढ़ाये जाते । पत्रकारिता विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ से अनौपचारिक चर्चा के दौरान ज्ञात हुआ कि चाहकर भी उन विषयों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया जा सकता क्योंकि वे विषय ही प्रमखता से रखे जाते हैं जिनसे विद्यार्थियों का प्लेसमेंट हो सके। यदि प्लेसमेंट नहीं हुआ तो पढ़ने कौन आएगा जिससे प्रतिष्ठान की आर्थिक स्थिति पर तो प्रभाव पड़ेगा ही, उसकी प्रतिष्ठा भी प्रभावित होगी अत: बहुत कुछ मीडिया हाउस के अनुसार चलना पड़ता है। मेरे स्पष्ट पूछने पर कि ये विषय विस्तृत रूप में न सही,सामान्य रूप से तो सम्मिलित किये जा सकते हैं। उनके अनुसार साहित्य तो किसी भी रूप में नहीं, इससे आगे बताने में वे सकुचाये। मतलब साफ है कि या तो इनको साहित्य से खतरा है या साहित्य इनके लिए बेकार की चीज है या साहित्य इनकी दृष्टि में बिकाऊ नहीं हैजो भी हो,साहित्य आज की पत्रकारिता चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया गया है, कारण कई हो सकते हैं, तलाश कर भी शायद कोई फायदा हो? इन पत्रकारिता विश्वविद्यालयों से जो विद्यार्थी पत्रकारिता के क्षेत्र में आगे आएंगे उनसे साहित्य की अपेक्षा कैसे की जा सकती है, और वे सामाजिक दायित्वों के प्रति कितना सचेत हो सकेंगे? भले ही वे अच्छे प्रोफेशनल्स हों, नया तकनीकी ज्ञान रखते हों पर वे भाषा और संवेदना से परे ही रहेंगे? वे सिर्फ और सिर्फ अपने व्यवसाय को ऊंचाई पर पहुंचता हुआ देखना चाहेगें, भले ही वे रास्ते कैसे भी हों।
पुराने समय में व्यवसायी या संपन्न व्यक्ति अपनी क्षमतानुसार धर्मशालाएं बनवाते थे, कुएं-बावड़ी खुदवाते थे, धर्मार्थ औषधालय खोलते थे, वाचनालयों/ पस्तकालयों को आर्थिक मदद करते थे, यह सब वे समाज के हित में करते थेऔर इसे समाज सेवा का नाम दिया जाता था क्योंकि इन सबसे वे किसी भी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं करते थे बल्कि समाज के वर्गविशेष की सहायता इस ढंग से करते थे कि उनके स्वाभिमान को ठेस नहीं लगे। पचास-साठ के दशक में कुछ व्यवसायिक घरानों ने कुछ और आगे बढ़कर साहित्य सेवा की ओर कदम बढ़ाये और कुछ विशुद्ध साहित्यिक पत्रिकाएं जैसे ज्ञानोदय,कल्पना,माध्यम आदि का प्रकाशन आरंभ हुआ। इन पत्रिकाओं ने साहित्यिक जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी, आज भी इनका स्मरण किया जाता है। इन पत्रिकाओं के निकालने का उद्देश्य उस समय व्यवसायिक तो बिल्कल नहीं दिखता था। इन पत्रिकाओं के बीच एक साहित्यिक पत्रिका 'लहर' भी अत्याधिक चर्चित रही जो एक दम्पत्ति प्रकाश जैन एवं मनमोहिनी जैन द्वारा निजी बूते पर संचालित की जाती थी। कुछ और पत्रिकाएं जैसे धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी. नवनीत आदि भी निकलीं। ये पत्रिकाएं व्यवसायिक स्तर पर निकाली गईं और इन्होंने अच्छा व्यवसाय ही नहीं किया बल्कि साहित्य को भी भरपूर स्थान दिया। ये पत्रिकाएं विशेषकर धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान तो उस समय के प्रत्येक पढ़े लिखे व्यक्ति को आवश्यक लगने लगे थे क्योंकि इनमें राजनीति के साथ साथ,समाज से जुड़े हर प्रकार के स्तंभ होते थे। कुछ समय उपरांत दिनमान और रविवार जैसी पत्रिकाएं भी निकलीं, उनको प्रसिद्धि तो बहुत मिली पर उनका जीवनकाल अपेक्षाकृत कम रहा हालांकि ये पत्रिकाएं भी अपने समय की चर्चित पत्रिकाएं थीं और इनमें भी साहित्य को अच्छा स्थान दिया जाता था। उपरोक्त पत्रिकाओं के सम्पादक प्रतिष्ठित साहित्यकार रहे। उनकी सम्पादकीय दृष्टि विलक्षण थी। इन पत्रिकाओं में प्रमुख रूप से धर्मवीर भारती, मनोहरश्याम जोशी, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, कमलेश्वर, कन्हैयालाल नंदन, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, सुरेन्द्रप्रताप सिंह, मृणाल पाण्डे जैसे यशस्वी साहित्यकार सम्पादक रहे हैं। क्या आज के समय में भी व्यवसायी, व्यावसायिक घराने या कारपोरेट या मीडिया हाउस साहित्य, समाज के लिए इतना नहीं कर सकते कि साहित्य को व्यवसाय का अंग न मान, सेवा मानकर अपने लाभ में से थोड़ा सा अंश उपरोक्त तरह की पत्रिकाएं निकालने में नहीं कर सकते या विद्यमान पत्रिकाओं की नि:स्वार्थ भाव से मदद नहीं कर सकते।
हालांकि साठ सत्तर के दशक में इन पत्रिकाओं को व्यावसायिक पत्रिकाएं मानकर इनके विरूद्ध अभियान चलाया गया क्योंकि इन्हें साहित्यिक पत्रिकाएं नहीं माना गया। उस समय यहां तक माहौल बना कि जो रचनाकार धर्मयग.साप्ताहिक हिन्दस्तान में छपेगा,लघ/साहित्यिक पत्रिकाएं उनका बहिष्कार करेंगी,परन्तु यह संभव नहीं हो पाया परन्तु 'लघु बनाम व्यवसायिक पत्रिकाओं की चर्चा खूब रही और जब व्यवसायिक पत्रिकाओं से साहित्य पूरी तरह अदृश्य होता जा रहा है, तब भी चर्चा है कि इनमें साहित्य को स्थान नहीं दिया जा रहा है।
कुछ हिन्दी समाचार पत्रों में चलन बढ़ा है कि कुछ पृष्ठ अंग्रेजी में दिये जा रहे हैं, परन्तु अंग्रेजी के समाचार पत्रों में हिन्दी के पृष्ठ नहीं दिये जा रहे हैं। हिन्दी के समाचार पत्रों में अंग्रेजी पृष्ठ दिये जाने की मानसिकता के पीछे शायद यह कारण हो सकता है कि अंग्रेजीदां लोग भी हिन्दी समाचार पत्र को पढ़ें । यह सोच इस का परिचायक है कि अब हमें अपनी हिंदीभाषा पर इतना विश्वास नहीं रहा है। कि वह अकेली पढ़ी जा सकेगी। हिन्दी भाषा में भी अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग अधिकता से होने लगा है जबकि उन शब्दों के हिन्दी में भी अपेक्षाकृत सहज और सरल विकल्प हैं। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग न हो पर जब उन शब्दों के सुगम विकल्प हिन्दी में हैं तो अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग से यथासंभव बचा जाना चाहिए। यह बात अलग है कि किसी भी भाषा में अन्य भाषा के शब्द लेने से भाषा समृद्ध होती है परन्तु अधिकता असमान्य ही कही जायगी।
साहित्यिक पत्रिकाओं में भी प्रयुक्त होने वाली भाषा को सहज, सरल होना आवश्यक है जो आम पाठक को आसानी से समझ में आ सके। इसका यह अर्थ नहीं कि भाषा का सरलीकरण होना चाहिए या भाषा परिष्कृत नहीं होना चाहिएपरन्त भाषा क्लिष्ट, दरूह भी नहीं होना चाहिए, भारी भरकम शब्दों के विकल्प के रूप में सरल शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है, वाक्य विन्यास भी छोटेछोटे हो सकते हैं। शायद यहीं कारण है कि आजकल यवाओं में चेतनभगत जैसे ऐसे ही अन्य रचनाकारों की हिन्दी भाषा की पस्तकें अत्यधिक लोकप्रिय हो रही हैं क्योंकि उनमें सहज, सरल शब्द हैं और सरल वाक्य विन्यास होता है।
आज के इस समय में जिसे साहित्य का संक्रमणकाल तो नहीं कहा जा सकता फिर भी साहित्य की पठनीयता और रूचि में जो कमी आई है, उसे देखते हए दो साहित्यिक पत्रिकाएं नया ज्ञानोदय' और 'हंस' अभी भी पाठकों की रूचि का केन्द्र हैं।'नया ज्ञानोदय' व्यवसायिक घराने की पत्रिका है तथा 'हंस' अकेले दम-खम पर निकल रही है। दोनों ही पत्रिकाएं अधिकांश रचनाकारों द्वारा पढ़ी जाती हैं तथा क्रय भी की जाती हैं। इनके संपादक प्रतिष्ठित साहित्यकार रवीन्द्र कालिया और राजेन्द्र यादव हैं जो समय-समय पर नये प्रयोग करते रहते हैं, नये नये मद्दों पर सामग्री देते हैं। अक्सर ये पत्रिकाएं सामग्री या सम्पादकीय को लेकर विवादों में घिर जाती हैं फिर भी इनकी पठनीयता एवं स्थापित लोकप्रियता में कमी नहीं आती। आज के इस आसाहित्यिक वातावरण में ये दोनों साहित्यिक पत्रिकाएं बराबर निकल कर सीना ठोक कर खड़ी हैं।
साहित्यिक पत्रकारिता को लघ पत्रिकाओं का पर्याय माना जाता है और आज कई लघु/साहित्यिक पत्रिकाएं पूरे उत्साह और जोश के साथ निकल रही हैंपर यदि उनकी प्रसार संख्या देखी जाय या उनकी पहुंच आम पाठक तक देखी जाय तो शायद बड़े स्तर पर निकलने वाली पत्रिकाएं हंस और नया ज्ञानोदय की प्रसार संख्या जो लगभग पन्द्रह-बीस हजार के आसपास होगी,का अनुपात देश के सवा अरब से अधिक लोगों के अनुपात में एक से ढाई लाख लोगों के मध्य एक पत्रिका आती है जबकि कई अन्य लघु पत्रिकाएं जो चार सौ से एक हजार तक प्रकाशित होती हैं,उनका अनुपात तेरह से इक्कीस लाख लोगों के मध्य एक पत्रिका का होता है। हालांकि इन पत्रिकाओं का मूल्यांकन प्रसार संख्या आदि के आधार पर नहीं किया जा सकता और न ही किया जाना चाहिए। ये तो मात्र यह बताने की कोशिश है कि इतने बड़े देश में लघु/साहित्यिक पत्रिकाओं की पहुंच और पठनीयता किस सीमा तक है अतः साहित्यिक पत्रिकाओं के अधिकाधिक विस्तार के लिए कारपोरेट क्षेत्र को आगे आने के लिए प्रेरित करना होगा। साहित्यिक पत्रिकाओं को भी साहित्य से इतर सामग्री देने की पहल करना होगी जिससे वे आम पाठक से जुड़ सकें और उनकी पठनीयता अधिक से अधिक हो सके क्योंकि रचनाकारों द्वारा लिखी जा रहीं, रचनाकारों द्वारा निकाली जा रहीं और रचनाकारों के द्वारा ही पढ़ी जा रही पत्रिकाएं, साहित्यिक स्तर पर अच्छी कही जा सकेगीं पर साहित्य को आम जन से जोड़ना भी अनिवार्य है अतः सामाजिक और सामयिक सामग्री तथा पाठकों की भागीदारी और सहभागिता पर भी ध्यान देना होगा
साहित्यिक पत्रकारिता का एक अंग निश्चित रूप से लघु साहित्यिक पत्रिकाएं हैं जो बड़े महानगरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों से भी प्रकाशित हो रही हैं, ये एक बहुत ही शुभ संकेत है कि लोगों में अभी इतना उत्साह तो है कि वे साहित्य को किसी न किसी रूप में लोगों तक पहुंचा रहे हैं, भले ही वे पत्रिकाएं किसी भी विधा की हों, किसी भी विचारधारा की हों, किसी संगठन विशेष की हों या गुट विशेष की या अपनों को उपकृत करने के लिए निकाली जा रही हों परन्तु साहित्य तो कर ही रही हैं। पठनीयता को बढ़ावा दे रही हैं। लोगों में साहित्य को लेकर विमर्श की स्थिति निर्मित कर रही हैं।
लघु पत्रिकाओं के आपसी समन्वय, संगठन को लेकर पूर्व में प्रयास होते रहे हैं, अभी भी हो रहे हैं पर अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है, प्रयास जारी रखे जाना चाहिए, एक न एक दिन तो अवश्य ही लक्ष्य की प्राप्ति होगी। यदि किसी विषय की सुगबुगाहट भी होती रहे तो उसके क्रियान्वयन की स्थिति आती ही है। उसके लिए लघु/साहित्यिक पत्रिकाओं को भी अपने-अपने स्तर पर प्रयास करते रहना चाहिए। 'प्रेरणा' इस दिशा में छोटा सा प्रयास कर रही है। अपने स्तंभ 'लघु पत्रिका अभियान के अंतर्गत लगभग सौ पत्रिकाओं की चर्चा करती है, उद्देश्य यही है कि यदि एक पत्रिका के पाठक, दूसरी पत्रिकाओं से परिचित नहीं हैं तो परिचित हो सकें और रचनाकार भी अधिक से अधिक पत्रिकाओं से जुड़ सके। इस उद्देश्य में सफलता भी मिल रही है, अन्य पत्रिकाओं के संपादकों और रचनाकारों द्वारा इसे सराहा जा रहा है। पाठकों, रचनाकारों, संपादकों के मध्य समन्वय बढ़ रहा है। कई रचनाकारों को तो इस स्तंभ के माध्यम से किसी पत्रिका में रचना प्रकाशित होने की जानकारी प्राप्त हो रही है जो उनको उस पत्रिका द्वारा उनके माध्यम से किन्हीं कारणों से मिलने से रह जाती है। सभी पत्रिकाओं से आग्रह है कि यदि विशेष कठिनाई न हो तो समानधर्मी पत्रिकाओं की चर्चा किसी न किसी रूप में अवश्य करें।
वरिष्ठ साहित्यकार व सम्पादक- 'पूर्वग्रह' एवं 'समावर्तन' डॉ. रमेश दवे ने साहित्यिक पत्रकारिता के तीन प्रकार के बारे में उल्लेख किया है एक तो साहित्यिक समारोहों, उत्सवों, घटनाओं, आयोजनों के समाचार या रपट छापना, दूसरे सर्जनात्मक लेखन छापना, तीसरे सम्पादकों को लिखे गये पत्र एवं सम्मतियां छापना।'प्रेरणा' इस दिशा में कार्य कर रही है। स्तंभ 'रपट' के अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों, विशेषकर अहिन्दी भाषी क्षेत्रों की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की चर्चा की जाती है जिससे लोगों को इस तरह के आयोजन करने की प्रेरणा मिलती है। दूसरे 'सर्जनात्मक लेखन' के अंतर्गत, आलेख, कहानी, कविता, लघु कथा, उपन्यास अंश, व्यंग्य, बातचीत आदि सामग्री दी जाती है। तीसरे 'सम्पादक को लिखे गये पत्र एवं सम्मतियां छापना' के अंतर्गत स्तंभ'आपकी कलम से' में पाठकों को खुला मंच प्रदान किया जाता है जिसमें वे प्रेरणा में प्रकाशित सामग्री पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणी के साथ-साथ अन्य मुद्दे भी उठाते हैं और प्रकाशित पत्रों पर भी अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। यह स्तंभ पत्रिका के साथ पाठकों की भागीदारी ही नहीं बढ़ाता बल्कि पाठकों को आपस में संवाद का अवसर भी प्रदान करता है। इस स्तंभ में पाठक खुलकर अपने विचार व्यक्त करते हैं, पत्रिका के स्वरूप पर चर्चा करते हैं उसको अच्छा बनाने के लिए सुझाव भी देते हैं। इसके माध्यम से पठनीयता बढ़ती है, तथा लेखन के प्रति प्रवृत्ति जाग्रत होती है। इसमें पाठकों को उचित मान दिया जाता है जिससे वे इसमें सहज रूप से सहभागिता कर सकें। इससे वे पाठक जिन तक पत्रिका नहीं पहुंचती है, वे दूसरों से प्राप्त कर पत्र लिखते हैं जिससे पाठक समूह बनते हैं। इस स्तंभ को बहुत सराहा जा रहा है यहां तक सुझाव मिले हैं कि इसमें प्रकाशित पत्रों को पुस्तकाकार रूप में लाया जाए।
प्रेरणा में साहित्य से इतर सामग्री भी दी जाती है। समय-समय पर विभिन्न प्रकार के मुद्दे प्रेरणा ने उठाये हैं। इस तरह के मुद्दे उठाने को सबसे पहले वरिष्ठ लेखक सुधीर विद्यार्थी जी और जगदीश प्रसाद चतुर्वेदीजी ने प्रेरित किया। वर्ष 1997 में प्रेरणा नई-नई निकलना आरंभ हुई थी और उस समय मैं अलीराजपुर, झाबआ में था तब सधीर विद्यार्थी के पत्र आये थे कि आजाद की जन्मस्थली के बारे में विवाद निरर्थक है। बदरका वाले आजाद को सम्मान के साथ याद करते हैं, यह अच्छी बात है पर उनकी जन्मस्थली भाभरा ही है। अतः जन्मस्थली के संबंध में भी छापिए।' जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी ने अपने पत्रों में भी 'भाभरा के बारे में, चन्द्रशेखर आजाद के स्मारक बनने, उनके पैतृक निवास, उनके नाम पर स्कूल आदि के बारे में लिखा था। तब तय किया गया कि आजाद के जन्म स्थान के बारे में प्रमाणिक तौर पर प्रेरणा में प्रकाशित किया जाए। अत: वहां के एक युवा पत्रकार शफाकत हुसैन दाऊदी के सहयोग से प्रोफेसर डॉ. के.के. त्रिवेदी से संपर्क किया गया जिन्होंने इस पर विस्तृत शोध किया था। 'प्रेरणा' में सुधीर विद्यार्थी एवं जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी के पत्रों के साथ डॉ. के.के. त्रिवेदी का प्रतिवेदन प्रकाशित किया गया। इस संबंध में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मख्यमंत्री से लिये गये साक्षात्कार में इस संबंध में किये गये जिक्र का उल्लेख भी उसी अंक में दिया गया। प्रेरणा में यह शोध लेख आने के बाद समाचार एजेंसी वार्ता' द्वारा प्रेरणा के शोध लेख के आधार पर आजाद की जन्मभूमि भाभरा प्रतिपादित करते हुए प्रेरणा का संदर्भ देते हुए समाचार प्रसारित किया गया जो समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ। जिनमें दैनिक भास्कर, चौथा संसार, सांध्य प्रकाश अदि प्रमुख हैं। दूरदर्शन पर भी यह समाचार आया। कुछ सुयोग और संयोग इस बीच हुए और एक बड़ा समारोह आयोजित कर उपराष्ट्रपति कृष्णकांत, केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री मकबूर डार, मध्यप्रदेश के पूर्व राज्यपाल मो. शफी कुरैशी, मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह आदि की उपस्थिति में भामरा को आजाद का जन्म स्थान माना गया। इसके बाद आजाद के जन्म स्थान के बारे में हो रहा विवाद समाप्त हो गया। प्रेरणा के अगस्त 1998 की अपनी बात' में इसका उल्लेख किया गया था।
समय-समय पर प्रेरणा अन्य मुद्दे भी उठाती रही है। प्रेरणा के वर्ष 2000 के एक अंक में राजेश जोशी जी से लंबी बातचीत में चर्चा के दौरान चुनाव सुधार के संबंध में यह बात उठी कि 'कोई ऐसा कालम क्यों नहीं होता कि हम इनको वोट नहीं देना चाहते हैं क्योंकि कभी-कभी पार्टियां खराब प्रत्याशियों को भी चुनाव में उतारती हैं परन्तु जनता को उनमें से किसी एक को ही चुनने की विवशता होती है जबकि वह जनता को पसंद नहीं है, इससे कई मतदाता, मतदान ही नहीं करते और मतदान प्रभावित होता है।' इस मुद्दे पर अलग-अलग स्तर पर प्रयास किये गये। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में मतदान केंद्रों पर एक प्रपत्र क्रमांक सत्रह रखा गया कि ई.व्ही.एम. में दर्शाये गये प्रत्याशियों को मैं अपने मत के योग्य नहीं पाता या इनको मत नहीं देना चाहता। इसका प्रचारप्रसार अधिक नहीं हो पाया फिर भी कुछ लोगों ने कहीं से जानकारी प्राप्त कर इस प्रपत्र का उपयोग किया। जून 2009 के एक अंक की अपनी बात' में इसका उल्लेख किया गया था। अब ई.व्ही.एम. में भी इस कालम को जोड़ दिया गया है।
प्रेरणा के जनवरी-मार्च 2011 के अंक में अपनी बात' में यह मुद्दा उठाया गया था कि सुना है कि एक कानून यह भी बन रहा है जिसमें 12 वर्ष से बड़े बच्चे स्वेच्छा से शारीरिक संबंध बना सकेंगे. इस कानन की क्यों और क्या आवश्यकता है जबकि वैवाहिक उम्र के लिए लड़की की न्यूनतम आयु 18 वर्ष निर्धारित है और इसके पीछे एक दलील यह भी दी जाती है कि शारीरिक संरचना की दृष्टि से इससे छोटी उम्र में शारीरिक संबंध बनाने से कई प्रकार की शारीरिक कठिनाईयां उत्पन्न होगीं फिर दसरी ओर 12 वर्ष से बड़े बच्चों को इस प्रकार की स्वतंत्रता देने का क्या औचित्य है? इसके कितने भयावह परिणाम समाज भोगेगा यह तो समय ही बतायेगा क्योंकि अन्य देश जहां इस प्रकार की स्वतंत्रता है, कई प्रकार की समस्याओं से पीड़ित हैं अतः इस पर अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार बहुत सोच विचार कर निर्णय लिया जाना चाहिए' इस मुद्दे को कुछ समाचार पत्रों ने भी उठाया। प्रसन्नता है कि माननीय संसद ने स्वेच्छा से संबंध बनाने की उम्र 12 वर्ष के बजाय 18 वर्ष रखने का प्रस्ताव पारित किया है जिससे वैवाहिक उम्र और इसमें एकरूपता रहेगी। हालांकि कुछ स्वैच्छिक संगठनों ने अपने तर्कों के आधार पर आपत्ति जताते हुए यह उम्र 16 वर्ष करने की दलील दी है। यदि ऐसा होता है तो इसमें एक बात का ध्यान अवश्य रखा जाये कि वैवाहिक उम्र और इसमें एक रूपता अवश्य ही हो। इसके अतिरिक्त सूखा, अतिवृष्टि, पर्यावरण, कैंसर उपचार आदि के मुद्दे भी समय-समय पर उठाये गये हैं। कैंसर के लिए अभियान अभी जारी है। इनके अतिरिक्त प्रेरणा' ने बहुत से मुद्दे समय-समय पर उठाये हैं पर उन्हीं का जिक्र विस्तार से किया गया हैजिसमें ठोस हल निकला है।
कई बार जाने अन्जाने में या व्यक्तिगत अहं के टकराव के चलते या अन्य कारणों से व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप, कटाक्ष की स्थिति साहित्यकारों के मध्य निर्मित हो जाती है, इससे बचा जा सकता है तभी पाठकों के सम्मुख एक आदर्श उपस्थित हो सकेगा। वैसे भी आपसी कटाक्ष, वैमनस्यता तो उत्पन्न कर ही सकते हैं। आलोचना रचनाकारों की नहीं, रचनाओं की होना चाहिए वह भी संयत और परिष्कृत शब्दों में जिससे किसी को ठेस न लगे, तथा स्वाभिमान आहत न हो।
पत्रकारिता बहुत बड़ी शक्ति है जिसके जनक और पोषक पत्रकार होते हैं जो अपने श्रमसाध्य, जोखिमपूर्ण और चुनौतीपूर्ण कार्यों से बुनियादी मुद्दों को उठाते हैं, जनता और सरकार के सामने लाते हैं। इसमें यदि साहित्य का अनुपातीय समावेश हो जाए तो व्यावहारिकता के साथ-साथ सहिष्णुता में और अधिक वृद्धि हो सकेगी, भाषा भी और अधिक परिष्कृत हो सकेगी। आने वाले समय में यह अवश्य ही होगा क्योंकि समय परिवर्तनशील है और हमारे यहां साहित्य और संस्कति की जड़ें गहरी हैं जो अवश्य ही अपना प्रभाव दिखाएगीं। यही अपेक्षा की जा सकती है कि साहित्यिक पत्रकारिता लघु/ साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्यम से ही न हो बल्कि व्यवसायिक दैनिक समाचार पत्रों, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक पत्रिकाओं में भी सम्मिलित हो और उनके सम्पादक भी साहित्य में पर्याप्त रूचि लें तथा मीडिया हाउस भी इस दिशा में सोचें।