कविता
महेश श्रीवास्तव
सुघड़ काया, खूब ऊंचे
योद्धाओं से सजीले
पेड गीले
दूब के गीले गलीचे
आओ नंगे पांव चल कर
गुदगुदाहट को उलीचें
भलभला कर गिर पड़ा बादल
कभी लो
खिलखिला कर हंस पड़ी फिर धूप
डबडबाई आंख से आनंद डूबे
भूमि के गड्ढे
छपछपा कर आओ
कर लें पांव गीले।
धान-खेतों में भरी हैं प्रार्थनाएं
नीर जैसी
रोपते हैं कटि झुकाकर
कृषक सपनों के भरोसे
धूल की ढेली हुई गीली
हो गए हैं
कंचुकी के बंध ढीले।
परावर्तित किरण की मेहंदी दिखाने
कर दिये हैं बदलियों ने हाथ नीचे
धन्यता से भरे वृक्षों के सिरों पर
पत्तियों के हाथ पीले
धरा गद्गद
राग अनहद
आओ इस बरसात में
भीगें
अनत आनंद पीलें।