कविता
एक
कभी सोचा भी न था
कि एक दिन ऐसा आयेगा
जब बिक जायेगा
नदियों का पानी
पेड़ों की हवा
हमारे घरों में आती रोशनी
हमारे पहाड़! हमारे खेत!
जिसमें हम हल चलाते थे
धरती का तोड़कर हाड़
खोद कर निकाले जायेंगे खनिज
विदेशी व्यापारियों के लिए
हमारी ही चुनी सरकार द्वारा।
कभी सोचा भी न था
कि हम खदेड़े जायेंगे जंगलों से
हम अपने ही देश में बन जायेंगे शरणार्थी
हमें घेर कर रखने के लिए बनाये जायेंगे
आरक्षण/संरक्षण के बाड़े
जबकि संविधान में लिखा होगा
सबके लिए स्वतंत्रता. समानता. न्याय।
कभी सोचा भी न था कि
ऐसी विडंबना से गुजरना पड़ेगा
कि लड़ने आयेंगे हमारे लिए
वे खा जायेंगे हमारे प्रभु-परानी
उठा ले जायेंगे हमारी स्त्रियों को
और दबाव डालेंगे कि
अपने दो पुत्रों में से एक हमें दे दो
इस लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए
इसी में तुम्हारी भलाई है।
कभी सोचा भी न था कि
जीनी पड़ेगी ऐसी जिंदगी
जिसमें जिजीविषा
चौतरफा हार का परचम होगी
प्रगति आत्महत्या की ओर ले जायेगी
अंधेरा रोशनी का पर्याय होगा।
दो
मैं अपने गांव की जमीन पर
पांव रखते ही
अनार के पौधे में रूपायित हो जाता हूं
जैसे ही कोई मेरा फल तोड़ना चाहता है
अंगार बन गिर पड़ता हूँ
जमीन पर।
जैसे ही कोई मेरा हृदय चीर
दाने निकालना चाहता है
लहू के कतरों में तब्दील हो जाता
ना रे ना
यह था तो कोई परिकथा है
या मैं कायर हूं
सिर्फ सपने देखता।
तीन
आप मेरे ऊपर दृष्टि डालते हैं
और देखते हैं मेरी आंखें
मेरी नाक, मेरी त्वचा, मेरा रंग
सुनते हैं मेरी भाषा
पूछते हैं मेरा अतीत का चीड़-फाड़
विश्लेषित करते हैं मेरा वर्तमान
भविष्य को भांपते हैं
और मेरी प्रोफाइल बनाते हैं
मैं एक जिज्ञासा हूं
एक नस्ली नमूना
राजनीति, इतिहास, नेतृत्व
आप भी प्रभावशाली ज्ञात
सभी इस मूल प्रश्न का उत्तर
देने में असमर्थ हैं कि
एक भारतीय कैसा दिखता है?
एक भारतीय मेरी तरह दिखता है
मैं एक भारतीय हूं।
चार
मैं प्रवासी पक्षी की तरह धूम रहा हूं
बांट रहा हूं संदेश
हवा में होता हूं तो बंधनहीन होता हूँ
तो क्या मेरा पक्षीमना हवा में हैं?
जबकि सारी राजनीति लगा है
इस हवा के तोड़ देने में
यह हवा मुझे बादलों में मिलाती जा रही है।