कविता
मनोज कुमार झा
इतनी चमकीली जगह उसने पहले कभी नहीं देखी थी
उसे सिनेमा याद आ गया
इस शहर में उसे बार बार सिनेमा याद आ जाता है
कोई पर्दा है जो इस शहर में घुसने नहीं देता।
चारों ओर देखा नली के भीतर आदमी,गाड़ी और रौशनी
अंत में खयाल आया कि क्या कमरा ना हो
तो कोई यहां सो सकता है
जैसे ठठ्ठ के ठठ्ठ वहां दरभंगा स्टेशन पर
सुरती मलते,ताश खेलते,गप्प फेटते।
अच्छा
वह एक अच्छा घर है
बच्चे अच्छे स्कूल जा रहे हैं
टिफिन में अच्छी चीजें खा रहे हैं
अच्छे नौकर घर ला रहे हैं
घर पर टीवी में अच्छे कार्यक्रम चल रहे हैं
इनके साथ बहुत कम बुरा होता है।
जो बुरे घर हैं उनके बाशिंदों के साथ अक्सर बुरा होता है
वे बुरी तरह पीटे जाते हैं, बुरी तरह मार दिए जाते हैं
कभी कभी अच्छे घरों के लोग बुरे घरों के लोगों के साथ अच्छा होने के लिये ट्वीट
करते हैं और अच्छे काम पर निकल जाते हैं।
कुछदिन
जो वन में आये थे कुछ दिनों के लिए
वे पेड़ों के गिर्द नाचे
सितारे थे--नाम था इनका
जो वन में बाहर से आये थे
उन्होंने पेडो को काटा
नामी लोग थे--रसूख था इनका।
काटने वालों ने नाचने वालों को देखा,नाचने वालों ने काटने वालों को
मुस्कराकर,फिर दूसरे वनों में जाने की तैयारी में लग गये।
मां भी थकती है
तुम्हारे खेत में जो धान के पौधे खड़े हैं
वे भी थकते हैं
थकते हैं छप्पड़ पर पड़े कुम्हड़े
धूप में काम करता राजमिस्री भी थकता है
थकता है और काम करता है, काम करता है और थकता है
सिर्फ तुम ही नहीं थकते
माथे पे घर उठाये माँ भी थकती है।
जो है
जो कुछ प्रकृति में है उसकी एक छायाप्रति कहीं किसी कंप्यूटर में कैद है या फिर
हजारों कंप्यूटर में
जो कुछ मौजूद है उसका पॉर्न बन चुका है।
शाम का मतलब प्रेम ही नहीं बासी हो चुका अखबार भी होता है जो धकेल देता
ताबड़तोड़ अपडेट्स में।
मन का खांचा मशीनों के पास है, मशीनों का खांचा आकाओं के पास
हर दीवार का पलस्तर उखड़ रहा है, हर शरीर की त्वचा अब शरीर से दूर जा रही
मायाबाजार में।
ऐसा कहना पड़ रहा कि निरन्तर बजता लाउडस्पीकर कोयल की आवाज पर हमला है।