सुरमई बूंदे

कविता


डॉ कंचन पाठक


कि यादें हमेशा वक्त के साथ धुंधली हो जाती हैं


ये गहरी भी हो जाती हैं कई बार...


जब बदलता है मौसम


यादों का एक पूरा का पूरा आसमान


आंखों में समा जाता है


उमड़ता घुमड़ता है भीतर ही भीतर देर


कितनी ही देर तक...


उफन कर खामोशियों की ध्वनि में मचाता है शोर


ध्वनि की उन अदृश्य तरंगों में


होते हैं जीते जागते सुदृढ़ अहसास


और जीवित दृश्यों को उकेरते कुछ स्यूम उजास


जो ले जाते हैं चेतना को पीछे बहुत पीछे


वापसी में झड़ती है बूंदे आंखों के विवश कोरों से


नम हो जाती हैं गलियां...


पलकों की उतरती सीढ़ियों पर


कभी धीमे से फैलती है एक उदास मुस्कराहट


यादों की....


गहरी फिर धुंधली


और फिर से खूब गहरी लकीर


हूक उठाती सुरमई बूंदें...


लिपिस्टिक का मनमौजी रंग


होठों पर देर तक उसांस भरता है


जेठ में विरह की तपिश है।


यादों के उन्मीलन सावन के मौसम


टप टप गिरती हैं बूंदे


धरती भीग जाती हैं फुहारों में


फूलों के घर पसरा होता है मधुमास ।।