एक कविता
केवल गोस्वामी
रोक लो सूरज को डूबने से
याचना करता है बेबस, बेचारा आदमी
सूरज को डूबने न दो।
घोर अंधकार में
और भी भयानक लगता है
यह घना जंगल,
स्मृतियों में एक-एक कर
उभरने लगते हैं स्वजन,
जो कभी जीवन का सहारा थे
आज नहीं है कहीं आस पास।
मेरी आवाज गुम हो गई है
अचानक
पिंडलियों पर से सरक जाते हैं
सर-सर कर जहरीले नाग
मैं महसूसता हूं,
देख नहीं पाता।
कानो को बेधती है कोई दहाड
मैं सुनता हूं
देख नहीं पाता
यह खतरनाक हवा
कहां कहां से आती है मेरे पास
मुझे डावां डोल करने के लिए
मैं पूछना चाहता हूं
किससे पूछू?
कोई नहीं है
धरती के उस किनारे तक
तुमने छीन लिया है एक-एक कर
सबको।
प्रभु! छीन लो मुझसे मेरी संवेदना भी
यह दुख को घना कई गुना कर देती है।
पर कहां सुनता है मानव विरोधी ईश्वर
अक्षत चंदन चढ़ाए
ढोल मंजीरे बजाए
उसके बहरे कानों में
नहीं आता वह पुकारने पर
कोई क्या करे ऐसे ईश्वर को लेकर
सूरज को डूबना होता है
वह डूब ही जाता है समय पर
भयानक अंधेरे को पसरना होता है
वह पसर ही जाता है आखिर
बेबस बेचारे आदमी को झेलना होता है
वह झेलता है रोकर, गा कर
कोई क्यों नहीं देता उसे
इसका विकल्प?