डॉ. वीरेन्द्र सिंह
बट्रेन्ड रसेल अपनी पुस्तक 'वैज्ञानिक अंर्तदृष्टि' (साइन्टेफिक इनसाइट) में विज्ञान के दो पक्षों की ओर संकेत करता है एक विज्ञान का तकनीकी पक्ष तथा दूसरा उसका वैचारिक या चिंतन पक्ष। ये दोनों पक्ष एक दूसरे के पूरक हैं या सापेक्ष हैं, पर विडंबना यह रही कि हम तकनीकी या यांत्रिकी पक्ष को ही विज्ञान समझने लगे, जो विज्ञान के प्रति एक अधूरी दृष्टि है। संपूर्ण विज्ञान उसका वैचारिक पक्ष है, जो जगतब्रह्मांड, मानव तथा मानवेत्तर प्राणियों के व्यापारों तथा प्रवृत्तियों का विवेक सम्मत आंकलन या विश्लेषण है। प्रेमशंकर रघुवंशी की कविताओं में ये दोनों पक्ष प्राप्त होते हैं पर विज्ञान के तकनीकी पक्ष पर कवि अधिक प्रेरित प्रतीत होता है। उसके वैचारिक या चिंतन पक्ष की अपेक्षा। पर यह भी सत्य है कि ये दोनों पक्ष उनकी कविताओं की संरचना में, जो लोक और प्रकृति से संबंधित हैं, में प्राप्त होते हैं।
__ कवि की एक कविता रूसी वैज्ञानिक 'लियोनोव के प्रति' अवश्य है जो अंतरिक्ष-विजन से संबंधित है। लियोनोव ने अंतरिक्ष यान में बंधी डोर के द्वारा पहली बार खुले आकाश में (दिक में) छलांग लगायी थी। इस घटना के बारे में कवि का कथन है-"अंतरिक्ष-विज्ञान का रहस्य खोल बैठी है यह घटना।" कवि की यह कविता "सोवियत भूमि में भी प्रकाशित हुई थी जो विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित हुई थी। इस कविता की निम्न पंक्तियाँ मुझे संवेदनशील लगीं जो कवि के मनोभावों को प्रकट करती हैं"आदमी दो पल भी जमीन पर नहीं रह पाता आदमी जैसा/और तू मोह छोड़ आकाश में तैरता रहा उन्मुक्त/शून्य का रहस्य खोलने, नूतन खोजों की जय बोलने।" ('तुम पूरी पृथ्वी हो कविता', पृ.-16)
मुझे मात्र एक ही कविता प्राप्त हुई जो किसी वैज्ञानिक को लक्ष्य करके लिखी गयी हो, अन्य किसी भी वैज्ञानिक के व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर नहीं। यह स्पष्ट करता है कि कवि अंतरिक्ष-विज्ञान की खोज के प्रति जागरूक है। इसके अतिरिक्त कवि विज्ञान के वैचारिक पक्ष तथा तकनीकी पक्ष को भी महत्व देता है जो उसकी रचना-दृष्टि को भी संकेतित करते हैं।
__विज्ञान के तकनीकी पक्ष पर कवि का प्रतिक्रियात्मक विचार है क्योंकि उसका प्रयोग नकारात्मक ही हआ है, जबकि उसका एक सकारात्मक पक्ष भी है जो मानवता के हित-लाभ के लिए है। वैज्ञानिक यंत्र, ओजोन पर्त तथा बम का प्रयोग जस रूप में लिया है, वह प्रतिक्रियात्मक एवं नकारात्मक ही है। यंत्र के प्रति कवि का कथन ऐसा ही है।
'बड़े-बड़े यंत्रों के स्वरों से कांप-कांप उठता है-मेरा हृदय/जहां सन्नाटे और शोर की जंग/बराबर जारी रहती है। ('पहाड़ों के बीच' पृष्ठ 37)
कवि ओजोन के छिद्र के बारे में इसी प्रकार कहता है जो कवि को अंदर तक झुलसा देता है-
“ओजोन की परतेंफाड़/जब भी मारता आकाशपरकोई झपट्टा/मैंअंदरतब झुलस जाता/आंच खाई फसल सा/मेरी भूख के लिए भरोसा जो हैसूरज!" ('पकी फसल के बीच' पृ. 22)
बमों का कहर इस प्रकार होता रहा कि सागर में आणविक कचरा धीर-धीरे जमा होता गया। जबकि पर्यावरण इस प्रकार का हो रहा था तब कवि अपने फेफड़ों में वैसी दूषित हवा को भरता रहा है-
"मुझे पता ही नहीं चला कि कब-कब चुपके-चुपके बनते रहे बम/कब-कब चोरीचोरी फेंका जाता रहा सागर में/आणविक कचरा" ('पकी फसल के बीच' पृ. 92-93)
विज्ञान के तकनीकी पक्ष के अतिरिक्त कवि की कविताओं में ऐसे भी संकेत प्राप्त होते हैं, जो विज्ञान द्वारा वैचारिक पक्ष को प्रेषित करते हैं। इन्हें भी कवि कविता की भाषा में व्यक्त करता है। विज्ञान दर्शन की यह मान्यता है कि शन्य या आकाश । (दिक) रिक्त नहीं है, वरन वह नक्षत्र, ग्रह तथा भिन्न प्रकार की किरणों से परिव्याप्त है। इस तथ्य को कवि रचनात्मक भाषा में व्यक्त करता है।
"आकाश शब्द सुनते ही लोग/ऊपर ताकने लगते हैं। जबकि वह/हर खालीपन में समाया है''('आकार लेती यात्राएं' पृष्ठ 11)
'दिक' के विस्तार में ग्रह और उपग्रह तथा गृह और नक्षत्र-ये सब पिंड परिक्रमारत हैं। इसे ही कवि सूर्य और उसके अंश के रूप में पृथ्वी गृह का अस्तित्व सर्वमान्य है- इस धरती को कवि कहीं पर 'नाशपाती' और कहीं पर बिना किसीकी परवाह की अपनी धुरी पर परिक्रमा कर रही है-
“मैं सूर्य हूँ और तुम मेरे ही जिस्म का एक हिस्सा हो धरती/
तुम मेरे उपवन की अकेली नाशपाती हो धरती/कि जो बिना किसी की परवाह किये तेजी से घूम रही धुरी पर/अपने भरपूर अस्तित्व के लिए।''("तुम पूरी पृथ्वी हो कविता" पृष्ठ 36)
कवि यहीं पर नहीं रुकता है, वरन वह पृथ्वी के जन्म के साथ जीवन (चेतना) के विविध रूपों को देखता है और 'जड़' से 'चेतन' तक 'प्रकाश की भाषा' से उसे परिव्याप्त देखता है। यह धरती के जन्म पर भाषा का साम्राज्य है जिसे कवि रचनात्मक रूप देना चाहता है-
"रजकण से लेकर/चट्टान बनने की प्रक्रिया में/तुमने/आग को/हमेशा-हमेशा/ अपनी/ छाती में छिपाए रखा''('पहाड़ों के बीच' पृ. 36)
__यही 'ठोस चट्टानें' धरती के आदिम अस्तित्व का परिचय दे रही हैं (वही, पृ. 108) तथा हजारों साल बाद पृथ्वी के अंदर ये चट्टानें हू-ब-हू शक्लों में अपने अंदर जीवाश्म को (फासिल्स) छिपाए रखती हैं, जो एक ऐतिहासिक सत्य हैं-
"हजारों हजार साल बाद/हू-ब-हू शक्लों का/इतिहास छिपाये/मिलेंगे फॉसिल्स।" ('पहाड़ों के बीच' पृ.111)
इसी सत्य को मुक्तिबोध प्राग-इतिहास तथा बाद के शरीर तथा बदन को एक सूत्र में जीवाश्म' के द्वारा बांधते हैं जो चट्टानों में प्राप्त होते हैं। यहां पर मुक्तिबोध की ऐतिहासिक-दृष्टि का परिचय प्राप्त होता है जो द्वंद्वात्मक एवं विकासशील है।
"पृथ्वी के पेट में घुसकर जब/पृथ्वी के हृदय की गर्मी के द्वारा मिट्टी के ढेर ये, चट्टान बन जाएंगे/तो इन चट्टानों की/आंतरिक धरती की सतहों में चित्र उभर आएंगे/ हमारे चेहरे के तन-बदन शरीर के।''("चाँद का मुँह टेढ़ा है" पृष्ठ 80)
ये सब विज्ञान का वैचारिक या चिंतन पक्ष तथा उसका तकनीकी पक्ष उस समय तक मानव हित लाभ में प्रयुक्त नहीं होंगे तब तक वैज्ञानिक दृष्टि मानव के पास नहीं आएंगी। यही नहीं धार्मिक जुनून तथा अन्य प्रकार के जुनून भी उस समय तक नहीं जा सकते, जब तक कि वैज्ञानिक दृष्टि नहीं आती है। यह वैज्ञानिक दृष्टि विवेक सम्मत दृष्टि है जो घटनाओं-प्रक्रियाओं को अंध विश्वास से नहीं, पर विवेक सम्मत दृष्टि से देखती है उसे कवि इस प्रकार सांकेतिक रूप से कहता है-
"नहीं आएंगी तब तक वैज्ञानिक दृष्टि/रहूँगा जिंदा में/मजहबी जुनूनियों की तरह/ पीढ़ियों के इरादों में।''("तुम पूरी पृथ्वी हो कविता'' पृ.69)
उपर्युक्त उदाहरणों द्वारा हम कवि की वैज्ञानिक दृष्टि जो विवेक सम्मत आकलन पर बल देती है, उसका परिचय कवि की कविताओं में प्राप्त करते हैं। इस दृष्टि में जहां विज्ञान के तकनीकी पक्ष पर प्रतिक्रियात्मक रूप प्राप्त होता है वह परोक्ष रूप से मानवता के हित लाभ को ही संकेतिक करता है। इस नकारात्मक रूप में भी सकारात्मकता व्याप्त है जो सांकेतिक है। दूसरी बात जो इन उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट होती है कि कवि का वैचारिक पक्ष विकास क्रम में चट्टनों के संदर्भ को तथा पृथ्वी की उपस्थिति को एक ऐतिहासिक सत्य के रूप में ग्रहण करता है। चिंतन या वैचारिक पक्ष के अंतर्गत अन्य उदाहरण हैं तो वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम पर उनका प्रयोग कवि ने साधारण दृष्टि से किया है पर ये उदाहरण भी रचनात्मक हो गए हैं जो कवि की रचनात्मक-दृष्टि के परिचायक हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अन्य उदाहरण रचनात्मक नहीं हैं पर उनमें स्तर भेद के दर्शन होते हैं। तीसरी बात जो मुझे एकांगी लगती है, वह है मात्र एक वैज्ञानिक (वह भी रूस का) के कतित्व तथा व्यक्तित्व का संकेत, जबकि इस क्षेत्र में (अंतरिक्ष-विज्ञान) तथा अन्य क्षेत्रों में अन्य वैज्ञानिकों का अपना योगदान है (जैसे आइस्टीन, फ्रेड, शेयल तथा डॉ नार्लिकर आदि) मुझे लगता है कवि रूस के प्रति आकर्षित है। कवि की अन्य कविताओं में मुझे प्रगतिवाद के अलावा अन्य विचार धाराएं प्राप्त होती हैं। यह कवि की रचनात्मक-दृष्टि है जिसमें वैज्ञानिकदृष्टि भी सांकेतिक रूप में विद्यमान है।
"मेरे विचार से प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता में अंतर है। प्रगतिवाद एक सिद्धांत है, वह 'वाद' है, पर प्रगतिशील कोई भी रचनाकार हो सकता है। यदि सही अर्थ में वह रचनाकार है तो। यह कदापि आवश्यक नहीं कि रचनाकार प्रगतिवादी रहें, पर वह रचनाकार प्रगतिशील हो सकता है। प्रसाद, निराला तथा पंत आदि प्रगतिशील रचनाकार थे, पर वे प्रगतिवादी नहीं थे। परंतु रघुवंशी की कविताएं प्रगतिवादी भी है और प्रगतिशील भी, जो उनकी रचनाओं के द्वारा प्रकट होता है।"